Thursday, November 11, 2010

घर



आज मै ऑफिस से घर से जो आई
कमरों में एक सन्नाटा सा पसरा पाया
हवाओ की सरसराहट पर
जैसे किसी ने ताला लगा दिया हो.

चारो तरफ हमारे एक-साथ बुने सपने
पतझड़ के पत्तो से बिखरे पड़े थे.
मैंने झुक कर एक को जो उठाया
तो तुम्हारी हंसी की खनक सुनाई दी

इस पर ख्याल आया,
आज कल मुस्कुराहतो ने हमारे साथ
आँख-मिचौली भी खेलना छोड़ दिया है

सोफे पे पड़ी मिट्टी की परते
बोलती है कितने दिन हुए
जब कुछ देर रुक कर
बातें की थी हमने
मेज पर उस दिन की कॉफ़ी के कप
के निशान आज भी मौजूद है

दरवाजे की घंटी बजी है
सोच रही हू आज पूछ ही लू
उस अजनबी से एक कप कॉफ़ी के लिए
जो यू तो रोज़ ही आता है मेरे घर.